योगेश मिश्रा
नवम्बर १६, २०१५
क्या जनता का भाजपा से
मोहभंग हो गया है? डेढ़ साल में यह दल अर्श से फर्श तक पहुँच गया है। वैसे होने को
तो इस दौरान बहुत कुछ हुआ है, परन्तु न तो नरेंद्र मोदी द्वारा विकास के नाम पर
उठाए गए क़दमों का असर धरातल दिखा और न ही अमित शाह भाजपा संगठन में कोई उल्लेखनीय
भूमिका निभा पाए। इक्कीसवीं सदी में भारत में रामराज्य स्थापित करने की भाजपा की
परिकल्पना को साकार करने के लिए आगे आये मोदी-शाह की जोड़ी के लिए बिहार का परिणाम
यक़ीनन एक सबक है, क्योंकि बहुमत की सरकार का जनाधार खिसकने लगा है और इन दोनों को
आने वाले तीन वर्षों में फिर से उतना ही जोर लगाना पड़ेगा जितना उन्होंने २०१४ में आम
चुनाव जीतने के लिए लगाया था।
वैसे किसी भी
सरकार पर उसके पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने से पूर्व टीका-टिपण्णी करना
अनुचित है परन्तु मोदी जैसे सधे हुए राजनेता यह भलीभांति जानते थे कि सत्ता में
काबिज होने के प्रथम दिन से ही वे विश्लेषकों व् आलोचकों के पसंदीदा विषय बनने
वाले हैं, इसलिए उन्होंने पूरी तैयारी के साथ अपना कामकाज संभाला। उनकी विकासपरक
व् राष्ट्रव्यापी बातों को लोगों ने हाथों हाथ लिया। उनके मन की बात तो जैसे लोगों
को अपने मन की बात लगने लगी। बदलाव दिखने भी लगा। स्वच्छता जैसी मुहीम लोगों को
जंच गई। और जो नहीं जंची वो थी उनकी महत्वपूर्ण विषयों पर चुप्पी और प्रधानमंत्री होते
हुए भी साधारण नेता की तरह विरोधियों पर अनवरत कटाक्ष करने की आदत।
जब-जब जनता ने
मोदी की तरफ इस आस से निहारा कि वे संवेदनशील मुद्दों, जैसे साम्प्रदायिकता, पर
अपनी बेबाक राय रखेंगे, उन्होंने लम्बी चुप्पी साध ली। और जब-जब उनसे यह अपेक्षा
की गई कि वे एक सुलझे हुए राजा कि तरह पेश आएंगे, वे असंयमित नज़र आये।
लोक सभा चुनाव के
पहले हालात अलग थे। जब उनके निशाने पर सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, राबर्ट वाड्रा,
नितीश कुमार, लालू प्रसाद, अरविन्द केजरीवाल व् अन्य होते थे तो जनता तालियाँ
बजाती थी परन्तु अब न केवल दृश्य बदल गया है बल्कि उनका किरदार भी। अब जनता की
वाहवाही उन्हें तभी मिलेगी जब उनके विकास का अदृश्य रथ शान्ति व् समृद्धि लायेगा।
अफ़सोस, मोदी ने
बिहार चुनाव में अपने भाषणों में विकासवाद की जगह व्यक्तिवाद को तरजीह दिया। लोग चाहते थे वे बोलें तो महंगाई पर, दाल
पर, प्याज पर, साम्प्रदायिकता व् असहिष्णुता की कृत्रिमता पर, काले धन पर, लेकिन
उन्होंने समय बरबाद किया नितीश, लालू व् अन्य को कोसने में। जंगलराज की बात कही,
परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि बिहार से भाजपा के कितने सांसद अपने गोद लिए
गाँवों में पिछले डेढ़ सालों में तब्दीलियाँ लाने में सफल हुए। सवा लाख करोड़ की
विशेष सहायता देने की घोषणा तो कर दी परन्तु यह नहीं बताया कि बिहार के पिछड़े
इलाकों में सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा व् स्वास्थय कैसे पहुंचाएंगे, नक्सलवाद का खात्मा
कैसे करेंगे। ऐसी ही व्यक्तिवादी बातें उन्होंने दिल्ली चुनाव में कहीं और प्रारंभ
से अंत तक उनके निशाने में रहे केजरीवाल और अंतत: भाजपा को मुंह की खानी पड़ी।
अब बात अमित शाह
की। देश के चौथे स्तम्भ
ने शाह को २०१४ के आम चुनाव में भाजपा की जीत के बाद चाणक्य की उपाधि दे डाली। कारण था उनका उत्तर प्रदेश
में प्रतिकूल परिस्थिति में चुनाव संचालन कर भाजपा को ८० में से ७१ सीट दिलाना। इस बढ़त ने मोदी को गुजरात
के मुख्यमंत्री से भारतवर्ष का प्रधानमंत्री बना दिया। समय इनाम का था। शाह को भाजपा
की कमान मिल गई। शुरूआती दौर में शाह ने ऐसे तेवर दिखाए जैसे बिना चुनाव के देश के सभी
राज्यों में भाजपा की सरकार बनवा देंगे परन्तु उनके सीमित
कार्यकाल में ही संगठन में असंतोष के नए स्वर फूटने लगे। जिन वरिष्ठजनों को सरकार
में जगह नहीं मिली, उन्हें संगठन ने भी नकार दिया।
शाह यदि चाहते तो वरिष्ठ
नेताओं के अनुभव का इस्तेमाल संगठन की जड़ों को मजबूत करने के लिए कर सकते थे परन्तु
उन्होंने शक्ति का नया पर्याय ढूंढ निकाला – संख्या। पुराने चेहरों
दरकिनार कर अब वे भाजपा को विश्व का सबसे बड़ा दल बनाने के लिए जुट गए। लक्ष्य था १० करोड़ सदस्य
बनाना। यह लक्ष्य कैसे पूरा हुआ, सब जानते हैं। शायद इसी संख्याबल के सहारे मोदी व्
शाह पुरे देश में भाजपा का वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे किन्तु बिहार चुनाव के
परिणाम से यह साफ हो गया कि अति-आत्मविश्वास के चलते भाजपा ने जनमानस की मनःस्थिति
पढने का प्रयास ही नहीं किया।
बिहार चुनाव में शाह की
पूर्व में अपनाई गई अचूक नीतियां नज़र नही आईं। तमाम तैयारियां केवल भीड़
जुटाने तक ही सीमित दिखीं। कार्यकर्ताओं में आपसी सामंजस्य की कमी दिखी।
जनता से जुड़ने की कोई जहमत उठाते नहीं दिखा। सभी ऐसे आश्वस्त दिख रहे थे जैसे मोदी
चंद भाषणों में ही बिहार जीत जायेंगे। शाह स्वयं विवादास्पद भाषणों को तरजीह देते दिखे।
संगठन स्तर पर भी
वे दल के नेताओं व् सांसदों को अनावश्यक बयानबाजी करने से रोकने में असफल रहे।
बिहार चुनाव में शत्रुहन सिन्हा ही नहीं बल्कि अनेक नेताओं की अनदेखी की गई। कुछ चुप रह गए तो कुछ ने दल
को शर्मिंदा करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखा।
बिहार में लालू
व् नितीश ने विकास की चाशनी में जाति, धर्म व् आरक्षण जैसे मुद्दों को लपेट दिया। मोदी
व् शाह इसका तोड़ नहीं निकाल पाए। शाह ने उत्तर प्रदेश में जिस मन्त्र के तहत हर संसदीय
क्षेत्र के लिए प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव प्रचार की रणनीति बनाई, वैसी
सूक्ष्मता बिहार में नहीं दिखी।
सफलता अहंकार को जन्म देती
है और यह व्यक्ति-विशेष पर निर्भर करता है कि ऐसे हालात में वह स्वयं के मन-मष्तिष्क
को कितना नियंत्रित कर सकता है। भाजपा इस बीमारी से अछूती नहीं है। इसका प्रत्यक्ष
प्रमाण है सन २०१४ के चुनाव परिणाम के बाद उसके नेताओं व् कार्यकर्ताओं के बदले
हुए सुर। धरातल पर तो जैसे किसी के पैर ही नहीं टिक रहे थे। मोदी ने जैसे ही कहा कि
अगले दस सालों तक वे केंद्र में जमे रहेंगे, भाजपाइयों को लगने लगा अब उन्हें कुछ करने
की आवश्यकता नहीं। मोदी के प्रयासों को सबसे पहली चोट उनके अपने दल के नेता ही
पहुंचाएंगे। यदि कुछ करके वे पांच सालों में जनता का विश्वास फिर जीतने में कामयाब
भी हो जाते हैं तो भाजपाई बिना कर्म किये चमत्कार की अपेक्षा में चादर तान के सोये
हुए उनकी मुसीबतें बढ़ा सकते हैं। उम्मीद है बिहार चुनाव के परिणाम भाजपाइयों को
अगले तीन साल सोने नहीं देंगे।