Wednesday, February 10, 2010

आतंक और भय

I wrote this poetry just a couple of days after November 26, 2008 - the fateful day when terrorists attacked Bombay.


कही गहमाया हुआ
सा वातावरण
कही झुंझलाया हुआ
सा कुंठित मन
ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

कैसा आतंक
है छाने लगा
जो हवा का रुख़
बहकाने लगा
अब सांसों पर भी
अधिकार यहाँ
कोई इंसान अपना
जताने लगा

उठती लपटें
दरिंदगी की
भस्म होती
पल-पल मानवता
यहाँ ईच्छाओं
आशाओं का
मुश्किल है बुनना
कोई स्वपन

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

अब वाद्यों के सुर
छिन्न हुए
सुमधुर आवाज़ें
क्रन्दित हुई
अब कलमों के स्याह
लाल हुए
कृतियों से विलग हुआ
स्पंदन

अब ना रहा वो
घर जिसपर
इठलाते थे
तुम हरदम
अब ना रहा वो
बाग जिसे
कहते थे तुम
सुंदर मधुबन

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

अब ना रहे वो लोग
जिन्हे तुम
बतलाते थे
अपना गम
अब ना रहा वो
शहर जहाँ
लहराता था
कभी चमन

अब तो केवल
जंगल की ही
भाषा बोली
जाती है
अब तो हर मौसम
मे खून की
होली खेली
जाती है

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन




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