October 14, 2015
भारत में ज्ञान विपरीत दिशा
से प्रवाहित होने लगा है। कल तक जो लेखक और साहित्यकार समाज के मार्गदर्शक कहलाते
थे, अब वे नेताओं के गुण-धर्म अपनाने लगे हैं। हाल ही में कुछ लेखकों पर हुए हमले
और दादरी हत्याकांड से ये संवेदनशील ज्ञान के पुंज इतने व्यथित हो गए कि
विरोधस्वरुप अपना सम्मान, जिसमे साहित्य अकादमी पुरस्कार भी शामिल है, लौटाने लगे
हैं। वर्तमान राजनैतिक परस्थिति से खिन्न इनमें से अधिकांश लेखक उम्रदराज हैं।
आश्चर्य है, बीते छह दशकों में अनेकों हृदयविदारक घटनाएँ हुईं परन्तु एक भी घटना इनकी
आत्मा को झकझोर नहीं पाई। छद्म वेश में दोगलों की यह कौन सी जमात है जो विरोध की आड़
में अपना उल्लू सीधा करने के फेर में है?
यह सत्य है कि विरोध भी
अभिव्यक्ति का एक हिस्सा है और लोकतंत्र में लोग अपनी असहमति प्रकट करने के लिए भांति-भांति
तरीके अपनाते हैं। परन्तु यहाँ विरोध करने वाले लोग प्रबुद्ध वर्ग से हैं, कलमकार हैं, उनकी यह
क्षुद्र प्रतिक्रिया अनपेक्षित है।
खोखले आदर्शवाद का प्रदर्शन काम न आयेगा, अलख जलाने के लिए कलम उठाना ही पड़ेगा। शांति और सौहार्द्र का वातावरण निर्मित करने के लिए, समाज को सजग करने के लिए और अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए कलम से बड़ा कोई हथियार नहीं।
सम्मान वापस करना यह साफ़ इंगित करता है कि इन तथाकथित साहित्यकारों की कलम में अब वो पैनापन नहीं रहा जिसके बूते वे एक समय आम जनजीवन के मन-मष्तिष्क को प्रभावित करने मे सक्षम थे। यदि ऐसा है तो साहित्य जगत के लिए यह त्रासदी का विषय है।
दरअसल गंभीर लेखन का सामाजिक व् वैश्विक जागरूकता से नाता शनैः शनैः टूटता जा रहा है। लेखक अब विचार व् चिंतन को दरकिनार कर अपने बाज़ार मूल्य को बढाने वाली सामग्री को शब्दों का अमलीजामा देने में लगे हैं। यह ऐसा दौर है जिसमे मूर्धन्य साहित्यकारों के पनपने की गुंजाइश कम है। अवसरवादिता हावी है। गुमनामी का भय इतना है कि ख़बरों में बने रहने के लिए चंद लेखक कुछ भी करने के लिए तैयार हैं – वर्तमान में उभरा विरोध का स्वर इसका ताजा उदाहरण है।
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