योगेश
मिश्रा
October 15, 2017
इक्कीसवीं
सदी
में
भारत
दुनिया
का
सबसे
तेजी
से
विकसित
होने
वाला
लोकतान्त्रिक
राष्ट्र
है।
प्राइसवाटरहाउसकूपर्स
का
मानना
है
कि
सन
2050 तक
भारत
विश्व
का
दूसरा
सबसे
बड़ा
अर्थतंत्र
बन
जाएगा।
पहले
पायदान
पर
चीन
रहेगा
और
तीसरे
पर
खिसक
जाएगा
अमेरिका।
तरक्की
की
ऐसी
रफ़्तार
के
बावजूद
इस
देश
की
54.6 प्रतिशत
जनसँख्या
- जो
कृषि
अथवा
कृषि-आधारित
कार्यों
पर
निर्भर
है -
की
अपनी
आर्थिक
स्थिति
चरमराई
हुई
है।
कारण
है
खेती
प्रौद्योगिकी
नहीं, मानसून
भरोसे
करने
की
प्रवृत्ति।
दरअसल
कर्ज
में
डूबा
किसान
दिवाली
तो
क्या, कोई
भी
त्यौहार
नहीं
मना
सकता।
वह
सभी
परेशानियों
से
मुक्त
होने
के
लिए
छटपटाता
रहता
है
और
निराशावाद
के
चरम
में
आत्महत्या
को
सबसे
सही
विकल्प
मानता
है।
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विरोधाभास
देखिये
- किसान
जी-तोड़
मेहनत
करने
के
बावजूद
मर
रहे
हैं
और
राज्य
सरकारें
अपनी
कृषि
योजनाओं
की
सफलता
का
दावा
करती
फिर
रही
हैं।
क्या
विद्वान
नीति
निर्धारकों
के
शब्दकोष
में
अल्पकालिक
राहत
राशि
का
कोई
दीर्घकालिक
व्यावहारिक
पर्याय
है? शायद
नहीं।
यदि
होता
तो
किसानों
को
अपने
फसल
की
कीमत
के
लिए
साल-दर-साल
बिचौलियों
और
सरकार
पर
निर्भर
नहीं
होना
पढ़ता।
सत्तर
साल
हो
गए
देश
को
आजाद
हुए
लेकिन
कृषि
क्षेत्र
अब
भी
बिखरा
हुआ
है।
ऐसा
क्या
कारण
है
कि
हजारों
सालों
से
चली
आ रही
खेती-किसानी
को
उन्नत
प्रौद्योगिकी
से
सोना
उगलने
वाले
स्वरोजगार
क्षेत्र
में
तब्दील
करने
में
हमारे
पसीने
छूट
गए
लेकिन
सात
दशक
में
औद्योगीकरण
की
हमने
आंधी
ला
दी? प्रतिबद्धतता
की
कमी
साफ़
दिखाई
देती
है।
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तकलीफ
तब
होती
है
जब
शोध
के
नाम
पर
वातानुकूलित
हॉल
में
चार-चार
घंटे
भाषण
देने
वाले
कृषि
वैज्ञानिक
यह
बता
नहीं
पाते
कि
दूर-दराज
के
गांव
में
एक
एकड़
में
खेती
करने
वाला
किसान
प्रकृति
की
मार
झेलकर
भी
अपनी
फसल
कैसे
बचाए।
इसी
देश
के
वैज्ञानिकों
ने
हथियार
से
लेकर
अन्तरिक्ष
तक
अनुसंधान
के
मामले
में
दुनिया
में
क्रांति
ला
दी
और
सफल
परीक्षणों
की
बौछार
कर
दी
लेकिन
कृषि
में
हम
पिछड़
गए? आखिर
क्यों? कागजों
में
कैद
ऐसे
शोध
और
अनुसंधान
का
मतलब
क्या
जो
किसी
के
काम
न आए?
प्रौद्योगिकी
के
साथ-साथ
अधोसंरचना
की
भी
भारी
कमी
है।
अमेरिका, कनाडा
और
पश्चिमी
यूरोप
में
कृषि
भूमि
का
एक
इंच
भी
ख़राब
नहीं
जाता।
सड़कों
का
विस्तृत
नेटवर्क
है
और
सिंचाई
के
आधुनिकतम
तरीके।
अफ्रीका
और
दक्षिण
एशिया
में
इसके
ठीक
विपरीत
हालात
हैं।
भारत
में
तो
उर्वरक
से
लेकर
बीज
तक
के
लिए
किसानों
को
सड़कों
पर
आन्दोलन
करना
पढता
है, अधोसंरचना
तो
दूर
की
कौड़ी
है।
स्थिति
यह
है
कि
राज्यों
में
अनाज
के
परिवहन
और
भण्डारण
की
व्यवस्था
भगवान्
भरोसे
है।
गोदामों
की
संख्या
अपर्याप्त
है।
हर
साल
लाखों
टन
अनाज
बारिश
में
भीग
कर
खराब
हो
जाता
है, लेकिन
फर्क
किसे
पढ़ता
है।
कृषि
पर
राजनीति
बंद
हो, नीति
बने
और
वह
भी
ऐसी
जिससे
न केवल
इस
क्षेत्र
की
देश
के
विकास
दर
में
भागीदारी
बढ़
सके
बल्कि
किसान
की
आर्थिक
स्थिति
में
भी
सुधार
हो।
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केन्द्रीय
कृषि
मंत्रालय
की
वार्षिक
रिपोर्ट
2016-17 के
अनुसार
कृषि
का
सकल
मूल्य
वर्धित
या
ग्रॉस
वैल्यू
ऐडेड
(GVA या
जीवीए) 2012-13 में
18.2 प्रतिशत
से
गिर
कर
2015-16 में
17 प्रतिशत
तक आ
गया।
रिपोर्ट
में
कृषि
और
उससे
सम्बद्ध
क्षेत्र
के
जीवीए
में
इस
गिरावट
का
मुख्य
कारण
तेजी
से
बढ़ती
और
संरचनात्मक
रूप
से
बदलती
अर्थव्यवस्था
को
माना
गया
है।
कारगर
नीति
इस
प्रवृत्ति
को
पूर्णत: बदल
सकती
है।
समझना
पड़ेगा, कर्जमाफी
समाधान
नहीं, केवल
बैसाखी
है।
किसानों
को
सहारे
की
नहीं
साधन
की
आवश्यकता
है।
फैसला
सरकार
को
करना
है।
जितनी
देरी
होगी
किसान
मरते
रहेंगे।
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