Thursday, October 10, 2013

अलविदा सचिन

October 10, 2013

सचिन, 1989 मे जब तुमने पहली बार देश का प्रतिनिधित्व किया तो लगा जैसे कोई अपना बाल सखा खेल रहा है। जब-जब तुम खेले, लगा मैं खेल रहा हूँ। तुम्हारी हर उपलब्धि मुझे अपनी लगती थी। हर चर्चा मे तुम्हारा नाम होता था - "यार सचिन टिका रहा इसलिए जीत पाए  लड़के मे दम है बॉस ये साले पाकिस्तानी, सचिन को क्या आउट करेंगे, देखा ना - शोएब अख़्तर को कैसे धोया था पिछली बार। अबे तू ना, फोकट के ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की तारीफ कर रहा है, अपने पास सचिन है बाबा, फिर द्रविड़ और गांगुली उनकी सटका देंगे।भाई जैसा भी पिच कंडीशन हो, छोकरा अगर शुरू के ओवर्स निकाल लेगा ना, तो इंडिया आराम से जीतेगी।"

शायद यही हाल देश के लाखों-करोड़ों लोगों का भी रहा होगा, तभी तो तुमसे उम्मीदें भी ऐसी रखते थे जैसे कोई अपनों से रखता है। जितना तुम खेल के प्रति समर्पित रहे, उतना ही देश तुम्हारे प्रति रहा। दोस्त, एक तुम ही तो हो जिसने क्रिकेट को धर्म मे तब्दील कर दिया।

एक समय यह भी आया जब लोग तुम पर आरोप लगाने लगे कि तुम केवल रिकॉर्ड के लिए खेलते हो। लेकिन मेरे जैसे और कई खेल प्रेमी हैं जिन्होंने तुम्हें लंबी नाकामी के बावजूद खेलने के लिए उतना ही आतुर देखा जैसे कोई नन्हा मासूम खिलौनों को देखकर अधीर हो उठता है।

मित्र - तुम खूब खेले, अब विदाई की बारी है। मैने कल्पना की थी कि खेल के ऐसे पड़ाव मे तुम अपना बल्ला अंतिम बार उठाओगे जब समुचा देश तुम्हे और खेलते हुए देखना चाहेगा परंतु ऐसी स्वर्णिम विदाई सभी के भाग्य मे नही होती, अत्याधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों के भाग्य मे तो शायद नही ही होती।


इन 24 सालों मे हम दोनो ही चालीस के हो गए। चर्चाओं का दौर काफ़ी पीछे छूट चुका है। जब तुम अपनी उपलब्धियाँ बढ़ा रहे थे, मैं स्थायित्व की खोज मे संघर्ष कर रहा था। अब हम खेल के मैदान मे फिर ना मिलेंगे। तुम अपनी सुध लो और मैं अपनी। अलविदा..

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