रायपुर।
छत्तीसगढ़ की सदियों पुरानी आदिवासी सभ्यता विनाश के कगार पर आ खड़ी हुई है। अपने वतन के प्रति वफादारी वीरता, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए विख्यात इस आदिवासी समाज का नेतृत्व ऐसे ख़तरनाक हाथों में खेल रहा है, जिसका उद्देश्य इस समाज में विघटन पैदा करके उसे प्रगतिशील समाज से अलग-थलग कर देना है। जिससे इस समाज का सारा ऐतिहासिक वैभव और विशेषताएं सदा के लिए नष्ट हो जाएंगी। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के नाम पर आतंकवाद का जो खेल हो रहा है वह वास्तव में आदिवासियों की प्राचीन सभ्यता को पूरी तरह से खत्म कर देने के लिए काफी है। उन्होंने जिनके खिलाफ हथियार उठाए हुए हैं, उनसे उनके लक्ष्य सध जाएंगे इसमें तो संदेह है लेकिन वे नई पीढ़ी को अपना विरोधी जरूर बना रहे हैं। यूं तो पुलिस और सामान्य नागरिको पर नक्सल आतंकवादियों के हमले बहुत पहले से जारी हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में घात लगाकर सुरक्षा बलों की हत्या के मामले ने राज्य सरकार को किसी बड़ी कार्रवाई के लिए मजबूर कर दिया है। श्रीलंका में दुनियां के सबसे बड़े आतंकवादी संगठन लिट्टे के समूल नष्ट कर देने की ताकत से हाल ही में कई देशों की सरकारों ने प्रेरणा ली है। पश्चिम बंगाल में लालगढ़ में माओवादियों और नक्सलवादियों के खिलाफ पश्चिम बंगाल सरकार का सशस्त्र अभियान भी कहीं न कहीं श्रीलंका की सफलता से प्रेरित है छत्तीसगढ़ सरकार रोज़ रोज़ के नक्सली हमलो से आजिज़ आ चुकी है और वह केंद्र के असहयोग के बावजूद इस समस्या के सफाए की तैयारी में हैं।
छत्तीसगढ़ मे तालिबानियों की तरह हत्यारे नक्सलियों की हिंसक वारदातें बढ़ती ही जा रहीं हैं। नक्सलियों के दुस्साहस का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब उन्होंने प्रदेश के आदिवासी इलाक़ों से निकलकर शहरी क्षेत्रों मे भी पैर पसारना शुरू कर दिया है जिसका ख़ामियाजा भविष्य मे प्रदेश के सामान्य जनजीवन को किसी भी समय भुगतना पड़ सकता है। इनकी कड़ी मे सुरक्षा बलों की हत्या एक ऐसा हादसा जुड़ गया है, जिसने राज्य के पुलिस और खुफिया तंत्र को जबरदस्त चुनौती दी है। प्रदेश के राजनांदगांव जिले के मानपुर इलाक़े मे नक्सली आतंकियों ने राज्य पुलिस पर घात लगाकर जो हमला किया उसमे एसपी समेत 36 जवान शहीद हो गए और दो दर्जन से अधिक पुलिसकर्मी घायल हुए। इस घटना से न केवल राज्य का आम आदमी सकते मे है बल्कि सरकार भी बौखलाई हुई है। उसके सामने अपने दम पर ही इस समस्या से दो चार होने की चुनौती आ खड़ी हुई है। राज्य सरकार इस घटना क्रम पर नज़र रखे हुए है। प्रदेश के तीन दशक के इतिहास मे ऐसा पहली बार हुआ है जब हत्यारे नक्सलियों ने राज्य के किसी हाई प्रोफाइल पुलिस अफ़सर को निशाना बनाया है। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा है कि नक्सलियों की इस हरकत मे उनकी हताशा और बौखलाहाट साफ झलकती है परंतु इसके बावजूद पुलिस का मनोबल कमज़ोर नही हुआ है। उन्होने प्रदेश के सभी वर्ग के लोगों से अपील की है कि ऐसे अवसर पर वे अपने वैचारिक और राजनैतिक मतभेद भूलकर एकजुट रहें जिससे राज्य मे शांति कायम रह सके। मुख्यमंत्री ने विश्वास दिलाया कि भविष्य मे ऐसी घटनाओं की पुनरावृति न हो इसके लिए सरकार हरसंभव प्रयास करेगी। उधर कॉंग्रेस रमन सरकार को नक्सलवाद से निपटने मे अक्षम करार देते हुए प्रदेश मे तुरंत राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग कर रही है।
रविवार 12 जुलाई का दिन राज्य के एसपी विनोद कुमार चौबे समेत 36 जवान, नक्सली आतंक की भेंट चढ़ गए। प्रदेश मे एसपी चौबे की गिनती साहसी पुलिस अफसरों मे होती थी। उनका नाम नक्सलियों की हिट लिस्ट मे एक अर्से से दर्ज था क्योंकि उन्होंने माओवादियों के राजधानी रायपुर तथा भिलाई शहर मे तेज़ी से फैलते नेटवर्क को तोड़ने मे अहम भूमिका अदा की थी। जानकारी के मुताबिक दो जवान 12 जुलाई को तड़के राजनांदगांव जिले के मानपुर ब्लॉक के मदनवाडा क्षेत्र मे नक्सलियों के हाथों मारे गए, इसकी खबर मिलते ही एसपी चौबे 100 जवानों का काफिला लेकर घटनास्थल की ओर रवाना हो गए जहां पहले से ही घात लगाए बैठे तकरीबन एक हज़ार नक्सलियों ने इस घटना को अंजाम दिया। एसपी के काफिले के घटना स्थल पर दाखिल होते ही आतंकवादियों ने बिना देरी किए पहले से बिछाई हुई बारूदी सुरंग को विस्फोट करना शुरू कर दिया और साथ ही चारों तरफ से ताबड़तोड़ गोलीबारी भी करने लगे। पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बारह जुलाई की ही सुबह करीब 8:30 बजे मानपुर ब्लॉक के सीतागांव क्षेत्र मे नक्सलियों ने सुरक्षा बल के आठ जवानों को ले जाती हुई गाड़ी को बारूदी सुरंग विस्फोट से उड़ा दिया।
छत्तीसगढ़ पर अपना राज स्थापित करने की राजनीतिक महत्वकांक्षा आज छत्तीसगढ़ के सामान्य जन जीवन को तहस-नहस कर रही है। केंद्र और राज्यों के बीच असहयोग के नज़ारे देखने हों तो छत्तीसगढ़ भी आइए! केंद्र के असहयोग के चलते यहां न केवल विकास पर राजनीति हो रही है, अपितु आम आदमी की जान माल की सुरक्षा भी प्रभावित है। रमन सरकार जितना कर सकती है वह उतना कर रही है लेकिन केंद्र सरकार को जो सहयोग करना चाहिए वह मिलता नहीं दिखता है। नक्सल समस्या पर केंद्र का नज़रिया पल्ले छाड़ लेने जैसा है। राज्य व केंद्र सरकार केवल तमाशबीन बनकर रह गए हैं और अब तो नक्सली बेखौफ़ खून की होली खेल रहे हैं। इधर राज्य का गृह विभाग भी नक्सल आतंक की समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति बनाने मे नाकाम है इसके बावजूद नक्सल क्षेत्रों मे तैनात सुरक्षा बलों के जवानों का हौसला देखिए जो बारूदी सुरंगो से और घात लगाए हमलो में मारे जा रहें हैं लेकिन उनके जोश मे तनिक भी कमी नही आई है और वे अपनी शहादत देने के लिए सदैव की भांति मोर्चे पर डटे हुए हैं।
नक्सल और माओवादियों ने जिन राज्यों मे प्रमुखता से अपना नेटवर्क फैलाया है वे हैं-छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के कुछ पूर्वी इलाके। केंद्रीय गृह विभाग के लोक सभा मे पेश आंकड़ों के अनुसार 30 जून 2008 से 30 जून 2009 के मध्य 1128 नक्सली वारदात हुईं जिनमे 455 आम नागरिक और जवान मारे गए। अकेले छत्तीसगढ़ मे 285 नक्सली वारदात हुईं जिनमे 148 लोगों हताहत हुए। आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों मे छत्तीसगढ़ मे नक्सली घटनाओं मे तेज़ी आई है जिसकी वजह राजनीतिक घमासान माना जा रहा है, वहीं प्रदेश का लचर ख़ुफ़िया तंत्र और राज्य सीमा पर लगातार कमज़ोर होते जा रहे सुरक्षा प्रबंध माने जाते हैं।
नक्सलियों ने अपने प्रचार-प्रसार के लिए एक से बढ़कर एक तरीके अपनाए हुए हैं- जैसे ग्रामीण क्षेत्रों के अनपढ़ लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए वहां की स्थानीय बोली, नाटक-मंडली अथवा गायन-मंडलियों का सहारा लिया जाता है और शहरी इलाक़ों मे अपनी पकड़ बनाने के लिए इश्तहार वितरित किए जाते हैं। धीरे-धीरे नक्सलियों को इसका लाभ मिलने लगा और इनकी मुहीम को जायज़ ठहराने वाले लोगों मे देश के कई एनजीओ, सामाजिक संगठन, प्रबुद्ध वर्ग के लोग, तथाकथित मानवाधिकार की रक्षा के लिए उमड़ आए संगठन, सरकारी महकमों के ऊंची कुर्सी मे बैठने वाले बहुत से शातिर अधिकारी एवं देश की न्यायपालिका चलाने वाले अनेक न्यायाधीश भी शामिल हो गए हैं। अपने-अपने क्षेत्रों मे माहिर ये नक्सल समर्थक उनके लिए एक प्रकार से मदद का काम करते हैं और समय-समय पर नक्सलवाद के विरुद्ध बनाई जाने वाली रणनीतियों से निपटने की सलाह देने का काम भी करते हैं जिसके परिणामस्वरूप सुरक्षा बलों के जवानों की जान सबसे ज़्यादा जोखिम मे रहती है। इधर देश के बहुत से विख्यात नागरिक भी नक्सलियों की सतही विचारधारा के समर्थन में और इन चरमपंथियों के विरुद्ध कार्रवाई की आलोचना करके अपने को मानवाधिकार के सबसे बड़े रक्षक ठहराते हुए चरमपंथियों का हौसला बढ़ाते हैं।
छत्तीसगढ़ में बहुत जल्द ही नक्सलियों ने अपने आगे के मंसूबे साफ कर दिए हैं और उन्होने अपना ग़रीबों का मसीहा वाला मुखौटा उतार कर असली रंग मे आते हुए अपनी मनमानी प्रारंभ कर दी है। अब उनके निशाने पर सरकारी अधिकारी-कर्मचारी एवं नेताओं के साथ साथ आम नागरिक भी हैं। नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों मे नित नया फरमान जारी होने लगा है जिसे न मानने वाले व्यक्ति को मौत के घाट उतार दिया जाता है। वास्तव मे नक्सलियों ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों मे एक प्रकार से तालिबान जैसा नेटवर्क अपनाया हुआ है जिसके अंतर्गत केवल उन्ही की बोली बोलने वाले लोगों को जीने का हक है। इन आतंकियों ने आधुनिक हथियारों का पूरा ज़ख़ीरा खड़ा कर लिया है और ये सभी प्रकार की युद्ध कला मे निपुणता हासिल करते जा रहे हैं। समाचार सूत्र बताते हैं कि नक्सली आतंकवादी अब अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए देश की बाहरी विघटनकारी ताकतों का सहारा ले रहे हैं जिनमे पाकिस्तान, नेपाल और चीन का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। नक्सलियों के सूत्रधार भी आम नागरिकों के बीच आराम से जीवनयापन कर रहे हैं और वे इन विघटनकारी ताकतों के बीच में संपर्क का काम करते हैं।
दरअसल, राज्य सरकार संदिग्ध लोगों को नक्सल समर्थक होने के आरोप मे पकड़ तो लेती है परंतु उनके खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य जुटाने मे हमेशा विफल होती है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है - पीयूसीएल के सदस्य डॉक्टर बिनायक सेन की गिरफ्तारी और फिर उनकी जमानत पर रिहाई। राज्य सरकार ने सेन को 14 मई, 2007 को नक्सलियों से संबंध रखने तथा जेल मे बंद माओवादी नेता नारायण सान्याल व व्यापारी पीयूष गुहा के संदेशवाहक का काम करने के आरोप मे गिरफ्तार किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 25 मई, 2009 को सेन की रिहाई का आदेश दे दिया। परंतु इन दो वर्षों मे भी छत्तीसगढ़ सरकार, सेन के खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने मे नाकाम रही। उधर प्रदेश मे सेन के रिहा होने की खुशी मे नक्सलियों ने पर्चे बांटे। सेन से मिलने वाले लोगों की सूची मे बड़े-बड़े नाम शुमार हैं जिनमे एक हैं अविभाजित मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव तथा छत्तीसगढ़ के शिक्षा सलाहकार शरत चंद्र बेहार जिन्हें बाद मे राज्य सरकार ने आनन-फानन में पद से हटा दिया। ऐसी स्थितियों में नक्सल आतंकवाद से निपटना कितना मुश्किल होता जा रहा है? यह राज्य की सरकार और उसके सुरक्षा बलों के लिए रोज़ का अनुत्तरित प्रश्न है। जहां तक मुख्यमंत्री रमन सिंह के इस समस्या से निपटने का सवाल है तो इसका समाधान तभी संभव है जब केंद्र सरकार और राज्य के बाकी राजनीतिक दल इसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल न करें, नहीं तो छत्तीसगढ़ की समृद्धि और आदिवासी इलाकों की सदियों पुरानी सभ्यता, सांस्कृतिक, सामाजिक परंपराएं, मान्यताएं एवं ऐतिहासिक विरासत नष्ट हो ही रही है।
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