Thursday, July 14, 2011

आतंक और भय



जब कहीं कोई दर्दनाक घटना घटती है तो पहले हम चौंकते हैं फिर संवेदना प्रकट करते हैं. भावनाएँ उमड़ आए तो रो लेते हैं. परंतु आँसुओं के सूखने मे वक्त लगता हैं, घटनाओं के पुनः पुनः घटने मे नही. क्या करें? किसे कहें? सब तरफ केवल बातें हैं. बड़ी बड़ी बातें. कोई आतंकी हमला करता है, कोई नक्सली हमला करता है. हैवानियत के विभिन्न रूप हैं ये सब.
अब ये सब बंद होना चाहिए. पर कैसे? पता नही. पता होता तो लिखने की क्या ज़रूरत पड़ती, कुछ कर ही डालते. सुख ज़रूरी है, समृद्धि ज़रूरी है, पर इन्हें प्राप्त करने के लिए किसी को मारने की क्या ज़रूरत है
अरे बर्बर लोगों, बहुत कुछ है इस संसार मे खून ख़राबे के सिवा, ज़रा नज़रिया तो बदलो.
अरे कायरों, चेहरा तो दिखाओ. बताओ तो सही कि क्या चाहते हो. और हिम्मत है, तो आओ, कर लो दो दो हाथ, हथियार को दरकिनार करो, बम का क्या ख़ौफ़ दिखाते हो, हाथ-पैर का दम दिखाओ.
मूर्खों, अगर तुम हमें आज मार दोगे तो कल तुम्हें कोई और मार देगा. अरे जब तुम ही नही रहोगे तो ये मारकाट क्यों? सोचो रे शैतानों, सोचो.
मैं जानता हूँ कोई सुनने वाला नही. मगर मैं प्रयास जारी रखूँगा.


हे फेसबुक प्रबुद्धजनों, १३ जुलाई, २०११ के आतंकी हमलों के बाद बंबई फिर आपकी-हमारी चर्चा का विषय बन गया है. बंबई से सभी देशवासियों का रिश्ता है. इसी शहर मे २६ नवंबर २००८ को आतंकी हमला हुआ था. उस वक्त मन मे कुछ ऐसे भाव उमड़े की उन्हें मैने शब्दों मे पिरो लिया. ये भाव पहले भी उमड़ते थे, जब नक्सली छत्तीसगढ़ मे मौत का तांडव करते थे अथवा देश के किसी हिस्से मे कोई आतंकी संगठन अशांति फैलता था. मन मे भाव तब भी उमड़ते हैं जब कहीं हत्या या बलात्कार की घटनाएँ प्रकाश मे आतीं हैं. अरे मन मे भाव तो तब भी उमड़ आता है जब कोई गाड़ी वाला किसी श्वान (कुत्ते) को रौंद कर निकल जाता है. पर अब लगता है कि इन भावों की परतें धीरे धीरे कम होती जा रहीं हैं. शायद किसी दिन भाव ख़त्म हो जाएँगे, और रह जाएगा केवल एक पत्थर दिल इंसान.

मैं अपनी पूर्व मे संग्रहित भावनात्मक शब्दों को पुनः आपके समक्ष रखता हूँ -


कही गहमाया हुआ
सा वातावरण
कही झुंझलाया हुआ
सा कुंठित मन
ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

कैसा आतंक
है छाने लगा
जो हवा का रुख़
बहकाने लगा
अब सांसों पर भी
अधिकार यहाँ
कोई इंसान अपना
जताने लगा

उठती लपटें
दरिंदगी की
भस्म होती
पल-पल मानवता
यहाँ ईच्छाओं
आशाओं का
मुश्किल है बुनना
कोई स्वपन

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

अब वाद्यों के सुर
छिन्न हुए
सुमधुर आवाज़ें
क्रन्दित हुई
अब कलमों के स्याह
लाल हुए
कृतियों से विलग हुआ
स्पंदन

अब ना रहा वो
घर जिसपर
इठलाते थे
तुम हरदम
अब ना रहा वो
बाग जिसे
कहते थे तुम
सुंदर मधुबन

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

अब ना रहे वो लोग
जिन्हे तुम
बतलाते थे
अपना गम
अब ना रहा वो
शहर जहाँ
लहराता था
कभी चमन

अब तो केवल
जंगल की ही
भाषा बोली
जाती है
अब तो हर मौसम
मे खून की
होली खेली
जाती है

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

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