योगेश मिश्रा
देश मे बढ़ते नक्सली आतंक को न तो राज्य सरकारें रोकने मे सफल हो पा रहीं हैं न ही केंद्र कुछ कर सकने की स्थिति मे दिखाई देती है. उपाय कोई नही कर रहा है, राजनीति सभी करना चाहते है. आरोप प्रत्यारोप के दौर वर्षों से चल रहे हैं परंतु राजनीतिक दल नक्सलियों के खिलाफ मुहीम मे कभी भी एकमत नही हो पाए.
देश मे बढ़ते नक्सली आतंक को न तो राज्य सरकारें रोकने मे सफल हो पा रहीं हैं न ही केंद्र कुछ कर सकने की स्थिति मे दिखाई देती है. उपाय कोई नही कर रहा है, राजनीति सभी करना चाहते है. आरोप प्रत्यारोप के दौर वर्षों से चल रहे हैं परंतु राजनीतिक दल नक्सलियों के खिलाफ मुहीम मे कभी भी एकमत नही हो पाए.
वजह बहुत हैं. हर वजह एक अध्याय से कम नही है.अगर संक्षिप्त मे समझा जाए तो प्रत्येक राजनीतिक दल नक्सली मुद्दे पर अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं. सबके अपने अपने स्वार्थ हैं. आम जनता के बारे मे किसी को सोचने की फ़ुर्सत नही है. भई हो भी क्यों? एक तो नेतागिरी, उपर से यदि सत्ता का स्वाद मिल जाए तो दोनो हाथ घी मे और खोपड़ी कढ़ाई मे ही होंगे न? फिर चाहे नक्सली आतंक फैलाए या कोई और, किसे परवाह है.
तो समाधान क्या है? नक्सल-प्रभावित राज्य सरकारों ने साम-दाम-दंड-भेद अपना कर देख लिया लेकिन नक्सलियों का बाल भी बांका नही कर पाए. शांति का मार्ग तो नक्सलियों को कभी रास नही आया. वे तो बल्कि हर शांति प्रस्ताव के उपरांत भाँति-भाँति प्रकार की वीभत्स घटनाओं को अंजाम देते आए हैं. इसका तात्पर्य है नक्सली अहिंसा का रास्ता कभी (या शायद अभी नही) नही अपनाएँगे.
तो लड़ाई आर-पार की ही बचती है. पर इस लड़ाई को कौन लड़े – नक्सल-प्रभावित राज्य सरकारें, केंद्र या आम जनता?
यदि राज्य सरकारों की बात की जाय तो उनका हमेशा यही रोना रहता है कि केंद्र उन्हें नक्सलियों से लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया नही कराती.
उधर केंद्र सरकार आरोप लगाती है कि राज्य सरकारें अपनी अक्षमता को छुपाने के लिए उसके दामन को दागदार करने को आतुर हैं.
रह गई नक्सली-प्रभावित क्षेत्रों मे वास करने वाली आम जनता. ये नक्सलियों से अपने स्तर पर जूझ रही है. दरअसल आमजन के संघर्ष का कोई मूल्य नही है. यदि होता तो राजनेता इनकी सुध बहुत पहले ही ले लिए होते और इनको संघर्ष करने की आवश्यकता ही नही पड़ती. आम जनता के अपने दायरे हैं. वो नक्सलियों को खदेड़ नही सकती, केवल उनसे असहमत हो सकती है. विशेष परिस्थितियों मे वो उनसे दो-दो हाथ भी कर सकती है परंतु ऐसा दुस्साहस दिखाना सबके बूते मे नही है.
तो क्या जो विधि केंद्र ने पंजाब मे आतंकवादियों से निपटने के लिए अपनाई थी वही नक्सल-प्रभावित राज्यों मे लागू की जा सकती है? यह संभव तो है परंतु इसकी व्यावहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लग सकते है. साथ ही इस प्रयोग मे भारी मात्रा मे जनहानि होने की संभावना है.
रह जाती है सेना जिसका उपयोग केंद्र ऐसी परिस्थितियों मे करती है जब उसके पास कोई उपाय शेष नही रह जाता. सेना के उपयोग से भी जनहानि की आशंका बनी रहेगी. परंतु सेना अपने कार्यों को संपादित करने के लिए अनूठे तरीके अपनाने के लिए मशहूर है. फिर भी वह नक्सलियों को पटखनी देने के लिए उनकी ही शैली आज़माने मे हिचकेगी नही.
लेकिन नक्सली केवल जंगलों मे ही नही अपितु शहरों मे भी पाए जाते हैं. इनका वृहद तंत्र शहरी क्षत्रों मे फैला हुआ है. आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से लेकर अन्य कार्य-योजनाओं पर आखरी मुहर शहरों मे रहने वाले नक्सली ही लगाते हैं. ये मुख्यधारा मे रहने वाले आतंकी हैं जिन्हें हम सफ़ेदपोश आतंकवादी कह सकते हैं.
परंतु अफ़सोस यह है कि ये राजनीति मे भी दखल रखते हैं. यह बात अलग है कि बहुत से राजनेता इनके असली रंग से वाकिफ़ नही हैं और केवल इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रभावशाली बातों की वजह से इनसे जुड़े हुए हैं. कुछ राजनीतिक दलों मे तो नक्सली बकायदा नेताओं की हैसियत से जनता की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं. कुछ सरकारी नौकरी कर रहे हैं और कुछ व्यापार मे संलिप्त हैं.
कुछ नक्सली समर्थकों को तो केंद्र ने अपनी समितियों मे भी स्थान दिया है. केंद्रीय समितियों मे सदस्यता हासिल करने वाले इन लोगों पर राजद्रोह के गंभीर आरोप लगे हैं. ऐसे आरोप इनपर तब लगे जब इनकी संदिग्ध गतिविधियों और नक्सलियों से नज़दीकियों का खुलासा हुआ.
कुछ नक्सली समर्थकों ने साधुओं का वेश धर लिया है और उन्हें आप अनेक प्रकार के मंचों पर देख सकते हैं. वे कभी सरकार और नक्सलियों के बीच सेतु बनते हैं तो कभी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों मे दिखाई पद जाते हैं. कुछ नक्सली समर्थक मानवाधिकार की आड़ मे अपना हाथ खून से रंगे हुए हैं और उन्हें यह खेल आत्मिक संतुष्टि देता प्रतीत होता है.
समाज के इन धब्बों को (नक्सलियों और उनके कट्टर समर्थकों को) पहचानना बहुत कठिन है. जो पहचाने जा रहे हैं उनको बचाने वालों की संख्या अनगिनत है. बड़ी विडंबना है. ऐसी स्थिति मे सेना भी असमंजस मे पढ़ जाएगी.
तो क्या यह ज़िम्मेदारी राज्य और केंद्र सरकारों की नही है जिन्हें आम जनता अपना कीमती वोट देकर सत्ता मे बैठाती है? फिर क्यों ये एक-दूसरे को कोसने मे समय बर्बाद कर रहे हैं? बेहतर यह होगा की वे सत्ता छोड़ें और किसी अन्य दल को मौका दें जो नक्सली समस्या का समाधान कर सके.
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