कुछ दिनों पूर्व असम मे एक लड़की को तीस-चालीस लड़कों ने
बेरहमी से पीटा। कुछ उसे पीट रहे थे और कुछ उसके वस्त्र फाड़ रहे थे। लड़की चीखती-चिल्लाती रही, मदद की गुहार लगाती रही, परंतु इस क्रूर तमाशे को देखने वाली भीड़ मे कुछ धृतराष्ट्र थे, कुछ भीष्म और कुछ विदुर। उन दरिंदों को रोकता कौन? जो
रोकता वही मार ख़ाता। दरअसल बहादुरी घरों की चारदीवारियों मे क़ैद होकर रह गई है।
यदि किसी लड़की का सामूहिक बलात्कार होता है तो होने दो, किसी के बाप का
क्या जाता है। लोगों को चिंता केवल अपनी बहू-बेटियों की सुरक्षा
की है। लेकिन कब तक? गिद्धों की दृष्टि से कोई कब तक बचेगा?
क्या किसी लड़की पर कुदृष्टि डालना बलात्कार से कम है?
आधुनिक युग मे ज्ञान के मंदिर भगवान के मंदिर से बड़े
हो गए लेकिन कहीं भी नारी का मान सुरक्षित नही रहा। क्या शहर और क्या गाँव, चारों तरफ नारी
केवल भोग की वस्तु बनकर रह गई है। प्रतिपल नारी यौन उत्पीड़न का शिकार बन रही है।
वासना का भूत सभ्यता की कृत्रिमता को भस्म कर देता है।
यह सदा से होता आया है। वर्तमान काल की घटनाएँ अतीत की घटनाओं की केवल पुनरावृत्ति
बनकर रह गई हैं।
आदिकाल से भारतवर्ष मे नारी पूजनीय रही है। यहाँ नारी
को देविरूपा माना गया है। किसी नारी को संबोधित करने के लिए देवी शब्द का प्रयोग केवल
इसी देश मे किया जाता है। परंतु दुर्भाग्य है कि आदिकाल से इसी धरा पर नारी का अपमान
भी होता रहा है। फिर चाहे वह त्रेता युग मे सीता का अपमान हो, द्वापर युग मे
द्रौपदी का या इस कलयुग मे अनगिनत नारियों का। ना केवल भारतवर्ष बल्कि संपूर्ण विश्व
मे नारी सदा से तिरस्कृत होती रही है।
सामाजिक संरचना मे नारी का अस्तित्व शून्य है। समाज ने
उसे माँ, बहन, बहू और बेटी का दर्जा अवश्य दिया है, परंतु इसी समाज
के एक अंग ने नारी को केवल शारीरिक संतृप्ति का माध्यम करार दिया है। यही कारण है वेश्यावृत्ति
विभिन्न स्वरूपों मे प्राचीन काल से प्रचलन मे है।
कुछ समाज के ठेकेदारों का कहना है कि लड़कियों को सौम्य
वस्त्र धारण करना चाहिए, ना कि उत्तेजक वस्त्र जैसे जीन्स। यदि ऐसा है तो साड़ी एवम् सलवार
कुर्ता पहनने वाली महिलाओं का बलात्कार क्यों होता है? और यदि
लड़कियाँ जीन्स ना पहनकर पारंपरिक परिधान पहनने लगें तो क्या घात लगाने वाले कपड़ों
की ओट मे छिपे जानवर साधुओं का मार्ग अपना लेंगे?
जब पश्चिम मे नारियों के वस्त्र छोटे हो रहे थे तब परंपरावादी
भारत मे रुपहले पर्दे पर मादक परिधानों मे लिपटी अभिनेत्रियों को थिरकते हुए लोग बड़े
चाव से देखते थे। आश्चर्य है यही लोग भारत के उच्च वर्ग मे पनपती विदेशी संस्कृति को
निर्लज्जता कहते थे। विदेशी हमेशा उन्मुक्त रहे, भारत मे नग्नता को छुपकर देखने का रिवाज
रहा है। दमन बुद्धि को नकारात्मक बना देती है। यही दशा पुरुषों के चरित्र के ह्रास
का कारण बनती है।
इसका यह अर्थ कतई नही है कि नारी के अपमान के लिए केवल
पुरुष ही ज़िम्मेदार है, बल्कि नारी भी कुछ हद तक दोषी है। यह विडंबना ही है कि नारी पढ़ी-लिखी होने के बाद भी विवाह के पश्चात पुत्र-प्राप्ति
की अभिलाषा रखती है। पुत्र और पुत्री मे भेदभाव करती है। पूर्व की अपेक्षा वर्तमान
मे यह पक्षपात कम तो हुआ है, परंतु ख़त्म नही।
यही हाल सास-बहू के संबंधो का है। ऐसा बिरले ही होता है जब
कोई सास अपनी बहू को बेटी का दर्जा देती हो। यह नारी का नारी के प्रति असम्मान का प्रथम
चरण होता है। बहुओं का शोषण और दहेज प्रताड़ना जैसी सामाजिक कुरीतियाँ इसी असम्मान
की पराकाष्ठा हैं।
परिधानों का चुनाव नारी के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय
है। जीन्स मे कोई बुराई नही है क्योंकि इसे समस्त भारतवर्ष ने स्वीकार कर लिया है।
परंतु छोटे कपड़े पहनने का प्रचलन अभी भी सीमित है। अधिकाँशतः लड़कियाँ अथवा महिलाएँ
छोटे कपड़े पहनने के बाद असहज महसूस करती हैं परंतु सुंदर दिखने की चाह मे वे ऐसा करने
से हिचकतीं भी नही। हालाँकि इसका निर्णय केवल नारी ही ले सकती है कि उसे ऐसे परिधान
पहनने चाहिए कि नही।
कारण जो भी हो, नारी अपमानित हो रही है। पांडव आज भी अल्प हैं
और कौरवों की संख्या मे अनवरत बढ़ोतरी हो रही है। आधुनिक युग मे द्रौपदी का चीरहारण
जारी है।
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