चलिए मानव आबादी ने सात अरब का आँकड़ा भी छू लिया. परंतु भारत जैसे देश मे आबादी का बढ़ना कोई चमत्कार तो है नही. जिस देश मे
जन्म-मृत्यु, आत्मा-परमात्मा
जैसे विषयों पर लोग गली-मोहल्ले-चौक-चौबारों मे बैठकर गंभीर चर्चाएँ करते हैं, वहाँ आबादी जैसे साधारण विषय की क्या बिसात? यह सवा अरब की आबादी वाला देश है. यहाँ अब भी
अस्सी फीसदी लोग पत्नी को बच्चा पैदा करने की मशीन समझते हैं और बच्चों को भगवान
की देन. भई वोट दे दिया, सरकार बना दी, अब नेता दिल्ली मे बैठकर फोड़ें अपना माथा
आबादी के बारे मे सोच सोच कर. क्यो रे लालू, सही कहा ना?
दरअसल, लालू जैसे लोग बढ़ी हुई आबादी को 'भरे-पुरे' परिवार की संज्ञा देते हैं. ग़रीब जन लालुओं को
मानक मानते हैं. वो कहते हैं – “अरे जब ललुआ
नौ-नौ बच्चे पैदा कर सकता है, तो ग़रीब आदमी तीन-चार नही कर सकता का?”
पढ़ा-लिखा वर्ग ग़रीबों मे जागरूकता लाने से पहले ही हार मान लेता है. आधी
ज़िंदगी किताबों मे सर खपाए हुए लोग कहते हैं - "अरे इन्हें क्या सिख़ाओगे, ये तो निपट गँवार हैं. भैया, इनको सरकार नही समझा सकी, हम क्या चीज़ हैं? और फिर इन्होने तो आबादी बढ़ाने का कापीराइट
किया हुआ है. बढ़ाने दो सालों को आबादी, और ये कर ही क्या
सकते हैं. ये सौ रुपये की दैनिक मज़दूरी मे साठ की तो दारू गटक जाते हैं और चालीस
की परिवार सहित खाते हैं. छत्तिसगढ़ जैसे प्रदेश मे तो ग़रीब पूरे सौ की दारू धकेल लेता है, क्योंकि खाना खिलाने का ठेका रमन सिंह की सरकार
ने लिया हुआ है. ऐसी स्थिति मे
इनके पास काम ही क्या बचता है - सिवाय परिवार
बढ़ाने का. इनपर हम क्यों अपना समय खराब करें. हमारे पास बहुत काम है. अभी और कई
किताबें चाटनी है. फिर अपनी खुद की किताब लिखेंगे - इन्हीं भिखमंगों पर."
रह गई सरकार. एक सरकार देश चला रही है और कई प्रदेश. परंतु कोई भी सरकार आबादी
पर लगाम कसने की ज़िम्मेदारी नही लेना चाहती. कांग्रेस तो कतई नही. सत्तर के दशक
के उत्तरार्ध मे संजय गाँधी ने दूध जलाया था, कांग्रेस अभी तक छाछ फूँक
रही है. आगे भी फूंकेगी. अन्य
राजनैतिक दल कांग्रेस से उम्र मे आधी हैं, इसलिए उसके ही अनुभवों को
मापदंड मानती हैं.
तो क्या यूँ ही बच्चे पैदा होते रहेंगे और सड़कों, रेलवे स्टेशनों व अनाथ आश्रमों मे अपना बचपन खोते रहेंगे? ऐसा होना तो नही चाहिए. केंद्र और प्रदेश सरकारों के पास योजनाएँ हैं. वृहद
योजनाएँ - जिन्हें सफलतापूर्वक लागू करने पर संपूर्ण सामाजिक ढाँचे मे परिवर्तन लाया जा
सकता है. साक्षरता और विकास जागरूकता के पहिए बन तिरस्कृत वर्ग मे क्रांति ला सकते
हैं. ज़रूरत है केवल सार्थक पहल की.
लेकिन मंत्री और संत्री योजनाओं से ज़्यादा आबंटित राशियों मे दिलचस्पी लेते
हैं. इन्हें अपने घर की आबादी
की अधिक चिंता है, देश जाए भाड़ मे. ये जनता के कर से
अपना घर चला रहे हैं और सरकारी ख़ज़ाना लूटकर अपना विदेशी बॅंक बॅलेन्स बढ़ा रहे
हैं. ये अपने बच्चों की पढ़ाई
मे लाखों फूँक देते हैं और सरकारी स्कूलों मे पढ़ने वाले बच्चों के विकास मे खर्च
होने वाले करोड़ों लूट लेते हैं.
अगर ये अपने इरादों मे थोड़ा चूक जाएँ तो निम्न वर्ग की पूरी की पूरी एक पीढ़ी
ज्ञान पी जाएगी और फिर बच्चों को जानवरों जैसा जीवन देने के लिए इस दुनिया मे लाने
के बजाए अपनी आर्थिक परिस्थिति को ध्यान रखते हुए ही अपना परिवारिक दायरा बढ़ाएगी.
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