(मैने इस लेख मे दैनिक बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है जिससे इसकी जीवंतता का एहसास हो सके. मैने कई
मसलों पर कटाक्ष भी किया है परंतु यह किसी व्यक्ति विशेष पर कतई नही है. फिर भी यदि किसी
प्रबुद्धजन को यह नागवार गुज़रे तो मैं पहले से ही खेद प्रकट करता हूँ.)
कहते हैं प्रेस
प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ होता है. अरे काहे का चौथा स्तंभ? अगर आप पत्रकारों से पूछें तो पता चलेगा कि
उनको खुद को पता नही कि उनके पेशे को लोग इतना वज़नदार क्यों मानते हैं.
वो कहेंगे – यार एक तो
जेब मे फूटी कौड़ी नही रहती, उधार मे जीवन कट
रहा है, और लोग हैं कि पिले पड़े हैं चौथा स्तंभ बनाने
के लिए. अरे नही बनना है भैया कोई स्तंभ-विस्तंभ. घर तो अपने दम पर संभाले नही
संभलाता. तनख़्वाह इतनी होती है जितनी धन्ना सेठ सप्ताह
मे पान गुटके चगलने मे फूँक देते हैं. मजबूरन बीबी से अरज करनी पड़ती है कि - हे
गृहलक्ष्मी, अपनी कृपा बढ़ाओ और
भोजन-झाड़ू-पोछा-बर्तन-कपड़ा करने के साथ साथ ट्यूशन इत्यादि करके हाथ बटाओ.
परिवारवालों से ताना अलग सुनना पड़ता है – अरे कुछ कमाई धमाई करोगे या बस यूँ ही
लफ्फाजी करते रहोगे. बड़े आए नेता, मंत्री और अफसरों
के साथ उठने बैठने वाले. कभी ज़रूरत मे कोई काम आया भी है भला? घोड़े जैसे दिखने
लगे हो, उम्र है कि ताड़ जैसे तड़ातड़ बढ़ रही है, पर समझदारी नामक चीज़ नही आई.
परंतु दिखावा नामक भी कोई
चीज़ होती है. पत्रकार सोचता है भले ही घर वाले उसका महत्व नही जानते लेकिन बाहर
तो वह अपना रुतबा बना ही लेगा, चाहे झूठा ही सही. और बनाएगा कैसे - भई, फलाँ अख़बार मे
पत्रकार हूँ, आज शहर मे नाम है, इज़्ज़त है, पैसा नही है तो
क्या हुआ, वो भी एक दिन आ
जाएगा. मगर पैसे के बारे मे बात करते करते उसके चेहरे पर उभरी शिकन साफ दिखाई
पड़ने लगती है. वह जानता है कि इसी पैसे की खातिर उसे कितना पापड़ बेलना पड़ता है.
दरअसल, पत्रकार
रोज़मर्रा की ज़रूरतों को तो किसी न किसी तरह से पूरी कर लेता है, परंतु जब उसके हालात बेकाबू हो जाते हैं तो पूरी दुनिया उससे मुँह मोड़
लेती है. जिस संस्था के लिए वो दिन-रात एक कर देता
है वो मदद के नाम पर हाथ खड़ा कर देती है. अपने अचानक पराए हो जाते हैं. बड़े बड़े
लोग, जो कभी गर्मजोशी
से मिला करते थे, कन्नी काटने लगते
हैं.
लाचार, हैरान, परेशान और हताश
पत्रकार आख़िर करे तो करे क्या? किसके सामने अपना रोना रोए? अरे ये तो वही पत्रकार है जिसे समाज का आईना
कहते हैं. क्या इस आईने को कोई सहेजने वाला नही है? शायद नही है. इस जगत मे जब किसी के आँसुओं का
मोल नही है, तो पत्रकार क्या
चीज़ है. बहुत चस्का था न
लिखने का? बड़ी बड़ी बातें, देश-विदेश और
समाज के बारे मे अपने विचारों को शब्द मे पिरोने की ललक, कुछ भी काम न
आया. सफल भी हुए तो चंद लोग, नाम भी कमाए तो इने गिने ही.
इनमें कई गधे तो घोड़ों
की खाल पहनकर आगे बढ़ गए. इन्हें न भाषा का ज्ञान है न लेखन का. इन्हीं महानुभाओं
के द्वारा पत्रकारिता दूषित हुई और इनकी वजह से ही इस पेशे को अन्य पेशों के
समतुल्य बना दिया गया है,
जैसे - दलाली, वेश्यावृत्ति और
न जाने क्या क्या. वह रे भांडों! विचारों की इतनी दरिद्रता थी तो इस पेशे से जुड़े
क्यों? कमाने के लिए और
भी पेशे थे जिनमे तुम्हारी बुद्धि ज़्यादा तेज़ चलती.
इस पेशे मे ऐसे भी लोग
हैं जो ग़लती से संपादक बन बैठते हैं. इन्हें हमेशा अपनी कुर्सी जाने का ख़तरा
दिखाई देता रहता है. इसलिए कुर्सी बचाने के लिए इन्होने चाटुकरिता का रास्ता अपना
लिया है. ये वो लोग हैं जो अपने कनिष्ठ पत्रकारों के विचारों से ईर्ष्या करते हैं, उनके लेखों को अपने नाम
से छाप देते हैं और कभी कभी तो छापते भी नही. बड़ी विडंबना है.
दूसरों के विचारों से डर कैसा? क्या यदि कोई प्रतिभाशाली है तो किसी और की
प्रतिभा पर आँच आ सकती है? बड़ी फूहड़ सोच
है. और होगी भी, क्योंकि ऐसे लोग ही फूहड़ हैं.
परंतु बाकी अनगिनत मेधावी
पत्रकारों का क्या हश्र होगा? क्या वो गुमनामी के अंधेरों मे ही भटकते रहेंगे? उन्हें उभरने का
मौका तो मिलना चाहिए. पर कौन देगा इन्हें मौका? सभी तो एक-दूसरे की टाँग काटने (खींचने) मे लगे हैं.
लेकिन ऐसा होता क्यों है? समाज मे इतना खोखलापन क्यों है? ये वरिष्ठ और कनिष्ठ क्या होता है? अरे कोई जानकार है, ज्ञानी है, तो है. फिर वह
छोटा हो या बड़ा, वरिष्ठ हो या
कनिष्ठ, किसी भी पद पर हो, क्या फ़र्क पड़ता है? बल्कि उसे तो प्रोत्साहन मिलना चाहिए. आश्चर्य
है, जिनमें प्रतिभा कूट कूट कर भरी होती है उन्हें
लोग दबाने मे लगे रहते हैं. स्वतंत्रता नामक चीज़ किसी पेशे मे नही है, ज़ाहिर है, फिर पत्रकारिता
मे कैसे आएगी.
यही कारण है कि
पत्रकारिता के नाम से जब जब कोई कार्यक्रम होता है, संगोष्टी होती है
तो इस पेशे के बारे मे पत्रकारों को छोड़कर अन्य लोग सुझाव देते हैं, नैतिकता का पाठ पढ़ते हैं. ऐसे मंचों का सबसे बढ़िया उपयोग नेता एवम्
मंत्री करते हैं. और क्यों न करें. आख़िर मौक़ापरस्त जो हैं. इसलिए, पत्रकारों को
पहले समझाइश देने के बहाने जमकर लताड़ते हैं और फिर अंत मे उनकी तारीफ मे दो शब्द
बोलकर खामोश हो जाते हैं. यह बात अलग है कि जब कोई उत्साही पत्रकार इन प्रभावशाली
लोगों को बेनकाब करना चाहता है तो ये उसके संपादक और संस्था के मालिक का मुँह
पैसों से ठूंस देते हैं. फिर खबर खबर नही रहती, कूड़ेदान की शोभा
बन जाती है.
फिर ये पत्रकार लिखें
क्या? अपनी इच्छा से लिखने का इन्हें कोई अधिकार नही होता. ये वो
खबर ही बनाते हैं जो या तो इनके संपादक कहते हैं या फिर मार्केटिंग और सेल्स विभाग
के लोग.
संस्था प्रमुख भी कहता है
- देखो, विचारशील होने से कुछ नही होता, लिखने भर से काम नही चलेगा, मल्टीटास्किंग (कई काम एक साथ करना) का ज़माना
है, तुम भी करो, खबर बनाओ, विज्ञापन लाओ. यदि पत्रकार पूछता है कि आप पगार
तो सिर्फ़ लिखने का देते हैं तो फिर सेल्स और विज्ञापन का काम क्यों लेते हैं, तो संस्था प्रमुख कहता है कि ऐसे विभागों के
लोगों को पालने का उसने ठेका लिया हुआ है. ऐसी बातें वह शब्दों से नही बल्कि अपनी
कुटील मुस्कान से कह जाता है.
पत्रकारों को उनकी अपनी
ही संस्था मे सिखाने वाले भी बहुत मिल जाते हैं. प्रायः हर विभाग से. बेइज़्ज़ती
अलग करते हैं. कोई कहता है - लिखने मे क्या रखा है, कोई भी लिख लेगा, कोई बड़ा काम तो
है नही, ये पत्रकार भी न, बस डीँगें हांकते
रहते हैं.
कुछ संस्था प्रमुख
जिन्हें लेखन अथवा पत्रकारिता से कोई सरोकार नही वो भी बड़े बड़े लेख लिखते हैं.
बस फ़र्क ये होता है कि ऐसे लेखों मे केवल नाम उनका होता है और काम किसी और का. यह
प्रचलन कई संस्थाओं के संपादकीय विभाग मे भी ज़ोरों पर है. कुछ वरिष्ठ पत्रकार, विचारों से
दीवालिया होने के बावजूद, साप्ताहिक स्तंभ लिखने के लिए बाकायदा किसी न
किसी कनिष्ठ पत्रकार के लेखन
पर अपने नाम का मुहर लगाने से बाज़ नही आते.
इसलिए पत्रकार दिखावा
करता है. वो कहता है मेरे पास सब कुछ है, मैं खुश हूँ. परंतु सच कुछ और होता है. उसके पास केवल विचार होते हैं, ज्ञान होता है और होती है ग़रीबी, विवशता और आस कि कभी तो दिन फिरेंगे. सोचता है, जब हर श्वान के
दिन फिर सकते हैं तो मैने क्या बिगाड़ा है. बेचारा पत्रकार -
इसी आस मे लिखते लिखते स्वर्गीय पत्रकार हो जाता है. उसे सच्ची श्रद्धांजलि देने
वाले भी कुछ लोग ही होते हैं - उसकी ही
तरह के चंद पत्रकार और उसके परिवार के लोग. अरे, जब पत्रकारों के
खुद के स्तंभ चरमरकार टूट जाते हैं, उखड़ जाते हैं तो
इनपर चौथे स्तंभ का बोझ डालने की क्या ज़रूरत है?
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