Wednesday, January 11, 2012

काँपते सभी हैं, सर्दी हो ना हो


सर्दियों का मौसम रूमानियत का एहसास तभी दिलाता है जब तन पर लिपटे हुए कपड़ों से टकराकर हवा बौरा जाए. परंतु ऐसे कपड़े सभी के पास होते कहाँ हैं? इसलिए अभावग्रस्त लोग काँपते हैं.

उत्तर भारत शीत लहर की चपेट मे है इसलिए वहाँ लाखों लोग काँप रहे हैं. मध्य भारत मे साल के नौ महीने गर्मी रहती है और तीन महीने कम गर्मी. लेकिन वहाँ के निवासी कम गर्मी को ठंड समझकर ज़बरदस्ती काँप रहे हैं.

दक्षिण मे सर्दी शब्द का उपयोग केवल खाँसी के साथ किया जाता है. वहाँ मसालों और मौसम की गर्मी कमोबेश समान ही होती है. वहाँ के लोग समाचारों मे ठंड की खबर सुनकर ही काँप जाते हैं.
केंद्र मे कांग्रेस की गठबंधन सरकार दाँत किटकिटा रही है क्योंकि उसे पाँच राज्यों मे होने वाले चुनावों की चिंता है. भाजपा व अन्य दल भी ठिठुर रहे हैं. उन्हें भी जनता की मुट्ठी मे अपने भविष्य को जकड़ा हुआ देखना रास नही आता.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पत्नी से कम सोनिया और राहुल गाँधी से ज़्यादा काँपते हैं. उनकी परेशानी यह है कि वे कांग्रेस मे केवल इन्हीं दोनो पहचानते हैं और दोनो ही ख़तरनाक हैं.

लालकृष्ण आडवाणी इस बात से काँपते हैं कि कहीं अगले आम चुनाव मे भाजपा उन्हें छोड़ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार ना बना दे. वहीं भाजपा आडवाणी की उम्र के साथ उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा से सिहर  जाती है.

अन्ना हज़ारे ने प्रतिज्ञा  की है  कि जब तक संसद मे सशक्त लोकपाल विधेयक पारित नही होगा, वे क्रोध से काँपते रहेंगे. उन्हें दुख है कि राजनेताओं ने उन्हें फिर धोखा दिया और लोकपाल विधेयक का तमाशा बना दिया. अफ़सोस कि राजनेता हमेशा से यही करते आए हैं. लेकिन जनता को कभी गुस्सा नही आया. जब तक जनता चुप रहेगी, क्रांति संभव नही है.

मायावती, ममता बनर्जी और जयललिता स्वयं को नारी शक्ति का प्रतीक मानतीं हैं.  इन्हें कभी किसी का ख़ौफ़ नही रहा बल्कि ये ही लोगों को ख़ौफज़दा रखतीं हैं.

आम आदमी ने तो जन्म ही लिया है काँपने के लिए. उसे भौतिक तल पर ज़िंदगी कँपाती है और आध्यात्मिक तल पर भगवान.  ग़रीब महँगाई से काँपता है और अमीर रुसवाई से. पुलिस अपराधियों से ख़ौफ़ खाती है और अपराधी पुलिस की बढ़ती हफ़्ताखोरी से.

भूख से बिलबिलाते कुपोषित बच्चों को देखकर लोग ठिठक जाते हैं, सिहर जाते हैं और फिर बड़ी सहजता से अपने कुत्तों को पोषक आहार देने के विषय मे चर्चा करने लगते हैं.  

लोग फटी हुई जींस हज़ारों रुपए मे खरीद लेते हैं लेकिन चिथड़ों मे लिपटे ग़रीबों को अपने पुराने कपड़े देने से हिचकते हैं. दान चंद सिक्कों मे सिमट गया है और पुण्य का सहज मार्ग बन गया है.  इसलिए ठंडी हवाएँ ग़रीबों को हमेशा कँपातीं रहेंगी, सरकारें आम लोगों का शोषण करती जाएँगी, ज़िंदगी महँगी हो जाएगी और मौत सस्ती!!!  

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